
अजीत मिश्रा (खोजी)
।। विद्यार्थियों का भविष्य दाव पर, सरकारी विद्यालयों के बंद होने की खबर से मचा हड़कंप।।
उत्तर प्रदेश
पिछले 5 सालों में बहुत से सरकारी विद्यालय बंद हो चुके हैं। जनसंख्या बढ़ रही है विद्यालय कम किया जा रहे हैं। जनसंख्या और विद्यालय के बीच संबंध अनुक्रमानुपाती का दिख रहा है। अर्थात जनसंख्या बढ़ रही है तो विद्यालय भी बढ़ना चाहिए लेकिन यहां तो व्युत्क्रमानुपाती का संबंध दिखाया जा रहा है अर्थात जनसंख्या बढ़ रही है और विद्यालय घटाया जा रहे हैं। यह तो बड़ा ही अजूबा है। तर्क दिया गया कि बच्चे कम है आखिर बच्चे कम क्यों है सबसे बड़ा प्रश्न? यदि बच्चे कम है तो उन बच्चों को स्कूल में कैसे लाया जाए उसके प्रति सरकार सचेत नहीं है। जबकि शिक्षा अधिकार अधिनियम के अनुरूप 1 किलोमीटर के दायरे में स्कूल मुहैया कराना सरकारों की न केवल नैतिक बल्कि संवैधानिक जिम्मेदारी है। एक सरकारी स्कूल का बंद होना क्या मायने रखता है इसका अनुमान शायद हम आज ना लगा सके। संभव है इसका खामियाजा समाज को 10 _20 वर्ष बाद भुगतना पड़े। एक और विकास के डंका बज रहे हैं वहीं दूसरी ओर आम बच्चों से उनकी बुनियादी शिक्षा की उम्मीद यानी सरकारी स्कूल तक छीने जा रहे हैं। हमने 2000 में सहस्राब्दी विकास लक्ष्य तय किया था। उसमें 2010 तक सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा दिलाने की घोषणा की थी। यूं तो 1990 में ही हमने सबके लिए शिक्षा की घोषणा कर दी थी, उसमें हमने तय किया था कि 2000 तक सभी बच्चों को तालीम मुहैया करा देंगे। लेकिन आज भी करोड़ों बच्चे स्कूली शिक्षा से बेदखल है हकीकत यह है कि हमें यह दर्द महसूस नहीं होता। बल्कि हम दूसरे तमाशा में दर्द को भूल बैठे हैं। क्या हम इस सच्चाई से मुंह मोड़ सकते हैं? आज स्कूल से बाहर रह गए बच्चे कल हमसे ही समाज के अनपहचाने चेहरों में तब्दील हो जाएंगे। समाज इन्हें अनपढ़ और गवार के तमगे बांटा करेगा। शिक्षा दरअसल हमारी चिंता के केंद्र में नहीं आ पाती,बस शिक्षा तब मीडिया और समाज का ध्यान खींचता है जब कोई अप्रिय घटना हो, शिक्षक का गुस्सा या बच्चे ज्यादा फेल हो जाए। जब हकीकतन स्कूलों में खासकर सरकारी स्कूलों में शिक्षक/ शिक्षण का मुद्दा उठता है तब बजट कम होने के नाम पर सारा ठीकरा शिक्षक के सिर पर फोड़ दिया जाता है। जबकि सरकारी स्कूलों में बच्चों के न आने,कम होने आदि की शिकायत अमूमन सभी राज्यों से आती रही है। पर इन स्कूलों को कैसे सुधारा जाए इस पर ठहरकर सोचने और समाधान निकालने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं होती। कहा जा रहा है कि बच्चों की संख्या विद्यालय में बहुत कम है इसलिए इन्हें बंद करने का फैसला लिया गया। जबकि कायदे से इन स्कूलों में बच्चों के कम होते जाने की वजहो की पड़ताल और उन वजहों को दूर करने का प्रयास किए जाने चाहिए थे। लेकिन यह कदम उठाना जरा कठिन था, सो आसान रास्ता चुन लिया गया इन स्कूलों को बंद कर दिया गया। लेकिन यह जानने की कोशिश हमने नहीं की, कि क्यों यह प्रवृत्ति विकसित हो रही है । क्या हम कम होते बच्चों यानी स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की पहचान नहीं कर सकते थे? क्या हमें यह नहीं पता करना चाहिए था कि इन स्कूल से बच्चे कहां दाखिल हो रहे है? तर्क यह भी दिया जा रहा है की इतने कम बच्चों पर मानव संसाधन और पैसा खर्च करना कहां तक उचित है। सरकार निजी कंपनियों के हाथों प्राथमिक शिक्षण को सौंपने का खेल खेल रही है। जो स्कूल बंद हो रहे हैं उनमें सबसे ज्यादा लड़कियां प्रभावित होगी। अभी सोशल मीडिया पर एक न्यूज़ चल रहा है कि जापान में एक जगह, सिर्फ एक बच्ची को स्कूल ले जाने और उसे घर पर छोड़ने के लिए ट्रेन आती है। उस ट्रेन में उस बच्ची के अलावा न कोई चढ़ता है ,न कोई उतरता है । पुरी ट्रेन में केवल वही बच्ची ही होती है। उत्तर के होकाईदो द्वीप के कामी शिराताकि गांव के स्टेशन को वहां के रेलवे विभाग ने बंद कर दिया था क्योंकि वहां ज्यादा सवारियां नहीं मिलती थी। लेकिन वहां एक बच्ची रोजाना स्कूल जाती थी। जब अधिकारियों ने देखा की बच्ची के स्कूल जाने की कोई साधन नहीं है तो रेलवे ने उसे स्टेशन को चालू रखने का फैसला लिया। और एक हमारे यहां की सरकार है जो फैसला लेती है?